Friday 26 December 2014

दुरु पर्देशु छौहोंमैं !!! इस सब्द
को सुनकर , हर उस परदेसी का रोम रोम
खड़ा हो जाता है , जिसने इस पापी पेट
के लिए , अपने ,घर बार सब कुछ , अपने
माँ बाप भाई बहिन और गाँव गलियों और
देश को त्याग रखा है ,और कुछ पल ऐसे
होते हैं कि सब कुछ भूल जाने के बाद
भी अपनों और अपने गाँव गलियों ,और
माँ बाप भाई बहिनों कि याद आ
ही जाती है और शादी होने के बाद
भी कुछ ऐसे लोग भी होते हैं
जो अपनी पतनी को शाथ नहीं ले
जा सकते हैं , जानकर सायद कोई
भी नही ले जाते हैं ,
आदमी कि अपनी अपनी परेसानी होती ,जिससे
उसको , उसको अपने बीबी बच्चों को घर
छोड कर परदेश जाना पड़ता है ,क्यूं ये हम
जैसे लोगों के शाथ ही होता है
ये विशेष कर गढ़वाल उत्तराँचल ले
लोगों मैं ज्यादा देखने को मिलता है ,
चलो यही सायद हमारी किस्मत है और ये
पापी पेट भी तो है जो कि इंसान
को सब कुछ त्याग करवाता है , चलो कोई
बात नहीं है हौंसला बुलंद होना कहिये ,
एक दिन खुशियाँ जरूर हमारे कदम
चूमेगी ,
श्री नरेंदर सिंह नेगी जी ने ये
जो गाना गया है सायद हम लोगों के
ऊपर सही लागू होता है , उसी गाने
की ये पंक्तियाँ मैं यहाँ लिखा रहा हूँ
दुरु पर्देसू छूँ , उम्मा तवे तैं मेरा सुऊं , हे
भूली न जेई, चिट्ठी , देणी रई
राजी खुसी छों मैं यख , तू
भी राजी रही तख
गौं गोलू मा चिट्ठी खोली ,
मेरी सेवा सौंली बोली
हे भूली न जेई , चिट्ठी देणी रैइ
घाम पाणी मा न रै तू
याखुली डंडियों न जै तू
दुखयारी न हवे जै कखी ,सरिल कु ख्याल
रखी, खानी पैनी खाई
हे भूली न जेई , चिट्ठी देणी रैइ
हुंदा जू पांखुर मैं मा , उड्डी औंदु फुर तवे
मा
बीराना देस की बात , क्यच
उम्मा मेरा हात , हे भूली न जेई ,
चिट्टी देणी रैइ
दुरु पर्देसू छुओं , उम्मा तवे तै मेरा सों , हे
भूली न जेई , चिट्ठी देणी रैइ ,
चिट्ठी देणी रैइ

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