जीविका के लिए उत्तरांचल छोड़कर जो लोग शहरों में बस गए हैं, उन्हें हम उत्तराखंड लोक सस्कृति के माधयम से उत्तराखंड के समस्त परम्पराओ के साथ जोड़कर रखते है यही परम्पराएं अपनी जड़ों से जोड़ने का काम करती हैं साथ ही साथ उत्तरांचल वासी होने का एहसास उनमें सदा जीवंत रहता है। यही हमारा प्रयास है की हम उत्तराखंड वासियो को अपने साथ जोड़ कर रखें जय उत्तराखंड
Sunday 28 December 2014
Friday 26 December 2014
दुरु पर्देशु छौहोंमैं !!! इस सब्द
को सुनकर , हर उस परदेसी का रोम रोम
खड़ा हो जाता है , जिसने इस पापी पेट
के लिए , अपने ,घर बार सब कुछ , अपने
माँ बाप भाई बहिन और गाँव गलियों और
देश को त्याग रखा है ,और कुछ पल ऐसे
होते हैं कि सब कुछ भूल जाने के बाद
भी अपनों और अपने गाँव गलियों ,और
माँ बाप भाई बहिनों कि याद आ
ही जाती है और शादी होने के बाद
भी कुछ ऐसे लोग भी होते हैं
जो अपनी पतनी को शाथ नहीं ले
जा सकते हैं , जानकर सायद कोई
भी नही ले जाते हैं ,
आदमी कि अपनी अपनी परेसानी होती ,जिससे
उसको , उसको अपने बीबी बच्चों को घर
छोड कर परदेश जाना पड़ता है ,क्यूं ये हम
जैसे लोगों के शाथ ही होता है
ये विशेष कर गढ़वाल उत्तराँचल ले
लोगों मैं ज्यादा देखने को मिलता है ,
चलो यही सायद हमारी किस्मत है और ये
पापी पेट भी तो है जो कि इंसान
को सब कुछ त्याग करवाता है , चलो कोई
बात नहीं है हौंसला बुलंद होना कहिये ,
एक दिन खुशियाँ जरूर हमारे कदम
चूमेगी ,
श्री नरेंदर सिंह नेगी जी ने ये
जो गाना गया है सायद हम लोगों के
ऊपर सही लागू होता है , उसी गाने
की ये पंक्तियाँ मैं यहाँ लिखा रहा हूँ
दुरु पर्देसू छूँ , उम्मा तवे तैं मेरा सुऊं , हे
भूली न जेई, चिट्ठी , देणी रई
राजी खुसी छों मैं यख , तू
भी राजी रही तख
गौं गोलू मा चिट्ठी खोली ,
मेरी सेवा सौंली बोली
हे भूली न जेई , चिट्ठी देणी रैइ
घाम पाणी मा न रै तू
याखुली डंडियों न जै तू
दुखयारी न हवे जै कखी ,सरिल कु ख्याल
रखी, खानी पैनी खाई
हे भूली न जेई , चिट्ठी देणी रैइ
हुंदा जू पांखुर मैं मा , उड्डी औंदु फुर तवे
मा
बीराना देस की बात , क्यच
उम्मा मेरा हात , हे भूली न जेई ,
चिट्टी देणी रैइ
दुरु पर्देसू छुओं , उम्मा तवे तै मेरा सों , हे
भूली न जेई , चिट्ठी देणी रैइ ,
चिट्ठी देणी रैइ
को सुनकर , हर उस परदेसी का रोम रोम
खड़ा हो जाता है , जिसने इस पापी पेट
के लिए , अपने ,घर बार सब कुछ , अपने
माँ बाप भाई बहिन और गाँव गलियों और
देश को त्याग रखा है ,और कुछ पल ऐसे
होते हैं कि सब कुछ भूल जाने के बाद
भी अपनों और अपने गाँव गलियों ,और
माँ बाप भाई बहिनों कि याद आ
ही जाती है और शादी होने के बाद
भी कुछ ऐसे लोग भी होते हैं
जो अपनी पतनी को शाथ नहीं ले
जा सकते हैं , जानकर सायद कोई
भी नही ले जाते हैं ,
आदमी कि अपनी अपनी परेसानी होती ,जिससे
उसको , उसको अपने बीबी बच्चों को घर
छोड कर परदेश जाना पड़ता है ,क्यूं ये हम
जैसे लोगों के शाथ ही होता है
ये विशेष कर गढ़वाल उत्तराँचल ले
लोगों मैं ज्यादा देखने को मिलता है ,
चलो यही सायद हमारी किस्मत है और ये
पापी पेट भी तो है जो कि इंसान
को सब कुछ त्याग करवाता है , चलो कोई
बात नहीं है हौंसला बुलंद होना कहिये ,
एक दिन खुशियाँ जरूर हमारे कदम
चूमेगी ,
श्री नरेंदर सिंह नेगी जी ने ये
जो गाना गया है सायद हम लोगों के
ऊपर सही लागू होता है , उसी गाने
की ये पंक्तियाँ मैं यहाँ लिखा रहा हूँ
दुरु पर्देसू छूँ , उम्मा तवे तैं मेरा सुऊं , हे
भूली न जेई, चिट्ठी , देणी रई
राजी खुसी छों मैं यख , तू
भी राजी रही तख
गौं गोलू मा चिट्ठी खोली ,
मेरी सेवा सौंली बोली
हे भूली न जेई , चिट्ठी देणी रैइ
घाम पाणी मा न रै तू
याखुली डंडियों न जै तू
दुखयारी न हवे जै कखी ,सरिल कु ख्याल
रखी, खानी पैनी खाई
हे भूली न जेई , चिट्ठी देणी रैइ
हुंदा जू पांखुर मैं मा , उड्डी औंदु फुर तवे
मा
बीराना देस की बात , क्यच
उम्मा मेरा हात , हे भूली न जेई ,
चिट्टी देणी रैइ
दुरु पर्देसू छुओं , उम्मा तवे तै मेरा सों , हे
भूली न जेई , चिट्ठी देणी रैइ ,
चिट्ठी देणी रैइ
Monday 15 December 2014
Tuesday 9 December 2014
Monday 8 December 2014
मेरा डांडी काण्ठियों का मुलुक जैल्यु…
पहाड़ वैसे तो हर मौसम में अपनी प्राकृतिक सुन्दरता से लोगों का मन मोह लेते हैं लेकिन वसंत ऋतु में उनकी सुन्दरता देखने लायक होती है। इसीलिये नरेन्द्र सिंह नेगी उत्तराखंड जाने वालों को सलाह देते हैं कि “मेरा डांडी काण्ठियों का मुलुक जैल्यु, बसन्त रितु मा जैयि”
गीत का भावार्थ :
अगर मेरे पहाड़ी देश में जाना तो बसन्त ऋतु में ही जाना
जब हर जगह बुरांश के फूल खिलकर
जब हर जगह बुरांश के फूल खिलकर
जंगलों में आग लगे होने का आभास देते हैं (अपने सुन्दर लाल रंग के कारण)
पंखों वाले सुन्दर फ्यौंलि के फूल पीले रंग में रंगे होते हैं
लइया, पैयां, ग्वीराल (कचनार) के फूलों से सजी हुई धरती देख कर आना..
अगर मेरे पहाड़ी देश में जाना तो बसन्त ऋतु में ही जाना
पंखों वाले सुन्दर फ्यौंलि के फूल पीले रंग में रंगे होते हैं
लइया, पैयां, ग्वीराल (कचनार) के फूलों से सजी हुई धरती देख कर आना..
अगर मेरे पहाड़ी देश में जाना तो बसन्त ऋतु में ही जाना
रंगीले फागुन में हौल्यारों कि टोली, पहाड़ों को रंग रही होगी
कोई किसी के रंग में रंगा होगा तो कोई मन ही मन किसी का हो चुका होगा
तरह-तरह के रंगों की बाढ़ और प्रेम के रंगों में भीग कर ही आना
अगर मेरे पहाड़ी देश में जाना तो बसन्त ऋतु में ही जाना
कोई किसी के रंग में रंगा होगा तो कोई मन ही मन किसी का हो चुका होगा
तरह-तरह के रंगों की बाढ़ और प्रेम के रंगों में भीग कर ही आना
अगर मेरे पहाड़ी देश में जाना तो बसन्त ऋतु में ही जाना
तुम्हें मिलेंगे देहरी में खिलते फूल (फूलदेई), रात-रात भर चलने वाले गिदारों (गायकों) के गीत
चैत के बोल, ओजियों (ढोल बजाने वालों) के ढोल, यही तो है मेरे मुलुक (देश) की रीत
रसिया मर्दों के ठुमके और सुन्दर बांद (महिलाओं) के लसके-ठसके देखकर आना
अगर मेरे पहाड़ी देश में जाना तो बसन्त ऋतु में ही जाना
चैत के बोल, ओजियों (ढोल बजाने वालों) के ढोल, यही तो है मेरे मुलुक (देश) की रीत
रसिया मर्दों के ठुमके और सुन्दर बांद (महिलाओं) के लसके-ठसके देखकर आना
अगर मेरे पहाड़ी देश में जाना तो बसन्त ऋतु में ही जाना
चैत की इस बहार के बीच तुम्हें सुनाई देंगे पहाड़ों में गूंजते घसियारिनों के मधुर गीत
खेल खेलते मस्ती में डूबे हुए लड़के मिलेंगे और मिलेंगी गले में टंगी हुई घन्टियां बजाती गायें
वहीं कहीं मिलेगा तुम्हें मेरा भी बचपन, अगर ऊठा कर ला पाओगे तो संभाल कर उसे भी ले आना
अगर मेरे पहाड़ी देश में जाना तो बसन्त ऋतु में ही जाना
खेल खेलते मस्ती में डूबे हुए लड़के मिलेंगे और मिलेंगी गले में टंगी हुई घन्टियां बजाती गायें
वहीं कहीं मिलेगा तुम्हें मेरा भी बचपन, अगर ऊठा कर ला पाओगे तो संभाल कर उसे भी ले आना
अगर मेरे पहाड़ी देश में जाना तो बसन्त ऋतु में ही जाना
गीत के बोल देवनागिरी में
मेरा डांडी काण्ठियों का मुलुक जैल्यु, बसन्त रितु मा जैयि,बसन्त रितु मा जैयि
मेरा डांडी काण्ठियों का मुलुक जैल्यु, बसन्त रितु मा जैयि,बसन्त रितु मा जैयि
मेरा डांडी काण्ठियों का मुलुक जैल्यु, बसन्त रितु मा जैयि,बसन्त रितु मा जैयि
हैरा बण मा बुराँस का फूल, जब बण आग लगाणा होला..
भीटा पाखों थैं फ्योलिं का फूल, पिन्ग्ला रंग मा रंग्याणा होला ..
लाइयां पैयां ग्वीराल फूलु ना, लाइयां पैयां ग्वीराल फूलु ना, होलि धरती सजि देखि ऐइ …
बसन्त रितु म जैयि…
मेरा डांडी काण्ठियों का मुलुक जैल्यु, बसन्त रितु मा जैयि,बसन्त रितु मा जैयि
भीटा पाखों थैं फ्योलिं का फूल, पिन्ग्ला रंग मा रंग्याणा होला ..
लाइयां पैयां ग्वीराल फूलु ना, लाइयां पैयां ग्वीराल फूलु ना, होलि धरती सजि देखि ऐइ …
बसन्त रितु म जैयि…
मेरा डांडी काण्ठियों का मुलुक जैल्यु, बसन्त रितु मा जैयि,बसन्त रितु मा जैयि
रंगीला फागुन होल्येरों कि टोलि, डांडि कांठियों रंग्यणि होलि…
कैक रंग म रंग्युं होलु क्वियि, क्वि मनि-मन म रंग्श्याणि होलि..
किर्मिचि केसरि रंग कि बार, किर्मिचि केसरि रंग कि बार, प्रेम क रंगों मा भीजि ऐइ…
बसन्त रितु म जैयि….
मेरा डांडी काण्ठियों का मुलुक जैल्यु, बसन्त रितु मा जैयि,बसन्त रितु मा जैयि
कैक रंग म रंग्युं होलु क्वियि, क्वि मनि-मन म रंग्श्याणि होलि..
किर्मिचि केसरि रंग कि बार, किर्मिचि केसरि रंग कि बार, प्रेम क रंगों मा भीजि ऐइ…
बसन्त रितु म जैयि….
मेरा डांडी काण्ठियों का मुलुक जैल्यु, बसन्त रितु मा जैयि,बसन्त रितु मा जैयि
बिन्सिरि देल्युं मा खिल्दा फूल, राति गों-गों गितेरुं का गीत…
चैता का बोल, ओजियों का ढोल, मेरा रोंतेला मुलुके कि रीत…
मस्त बिगिरैला बैखुं का ठुम्का, मस्त बिगिरैला बैखुं का ठुम्का, बांदूं का लस्सका देखि ऐइ….
बसन्त रितु म जैयि…
मेरा डांडी काण्ठियों का मुलुक जैल्यु, बसन्त रितु मा जैयि,बसन्त रितु मा जैयि
चैता का बोल, ओजियों का ढोल, मेरा रोंतेला मुलुके कि रीत…
मस्त बिगिरैला बैखुं का ठुम्का, मस्त बिगिरैला बैखुं का ठुम्का, बांदूं का लस्सका देखि ऐइ….
बसन्त रितु म जैयि…
मेरा डांडी काण्ठियों का मुलुक जैल्यु, बसन्त रितु मा जैयि,बसन्त रितु मा जैयि
सैणा दमला अर चैतै बयार, घस्यरि गीतों मा गुंज्दि डांडि…
खेल्युं मा रंग-मत ग्वेर छोरा, अट्क्दा गोर घम्डियंदि घंडि..
वखि फुन्डे होलु खत्युं मेरु भि बचपन, वखि फुन्डे होलु खत्युं मेरु भि बचपन, उकिरी सकली त उकिरी की लेई …
बसन्त रितु म जैयि…
मेरा डांडी काण्ठियों का मुलुक जैल्यु, बसन्त रितु मा जैयि,बसन्त रितु मा जैयि
बसन्त रितु मा जैयि, बसन्त रितु मा जैयि, बसन्त रितु मा जैयि
खेल्युं मा रंग-मत ग्वेर छोरा, अट्क्दा गोर घम्डियंदि घंडि..
वखि फुन्डे होलु खत्युं मेरु भि बचपन, वखि फुन्डे होलु खत्युं मेरु भि बचपन, उकिरी सकली त उकिरी की लेई …
बसन्त रितु म जैयि…
मेरा डांडी काण्ठियों का मुलुक जैल्यु, बसन्त रितु मा जैयि,बसन्त रितु मा जैयि
बसन्त रितु मा जैयि, बसन्त रितु मा जैयि, बसन्त रितु मा जैयि
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
गोरी मुखडी मा हो लाल होंटडी जनि आहा
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
बांज आयारु कु बोण, फुल्यु बुरांस कनु,
हेरी साडी मा बिलोज लाल पर्यु जनु.
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
कुत्तर किन्गोड़ कफल, काली हिंसर लरतर
रसुला देवदारु की ठंडी ठंडी हवा सर सर
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
खिली मखमली बूग्यालू , मा सरल मा क्या बुलन
आंखी रेह्गेनी देखदी, स्वर्ग पहुचीगी मन
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
यन्न मा होलू कन जू मन माया नी जोड़लू
खेल माया कु ना खेल, पछतौन पोडालू
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
केल कुलायु की सेर , तेरा गेल फिर कब,
राजी राली दांडी काँठी, ऋतू बोडली जब,
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
मालू ग्वीरालू का बीच खीनी सकीनी आहा,,,,
www.facebook.com/uttarakhandculture2014
गढ़वाली लोक संगीत
सुपरहिट पेशकश: "गढ़वाली गीत - बेडू पाको बारामासा", गायक: गोबिंद सिंह रावत, कल्पना चौहान, मीना राणा
www.facebook.com/uttarakhandculture2014?ref=hl
Sunday 23 November 2014
पहाड़ की नारी का दुःख
ना जा – ना जा तौं भेळू पखाण, जिदेरी घसेरी बोल्यूं माण
ना जा – ना जा तौं भेळू पखाण, जिदेरी घसेरी बोल्यूं माण
आंण नि देन्दी तू सरकारि बोण, गौर भैंस्यूं मिन क्या खलांण?
आंण नि देन्दी तू सरकारि बोण, गौर भैंस्यूं मिन क्या खलांण?
ना जा – ना जा – ना जा हे ना जा,
ना जा – ना जा तौं भेळू पखाण, जिदेरी घसेरी बोल्यूं माण
तेरि भों मि पतरोळ कखी भि जौऊँ, तू ड्यूटी समाळ जंगळ बचौऊं
तेरि भों मीं पतरोळ कखी भी जोंऊँ, तू ड्यूटी समाळ जंगळ बचौऊं
भेळ उन्द पोडु मीं डाळा उन्द मोरू चा जंगळ चोरु मिन घास ली जांण, गौरू भैंस्यूं थें क्या खलांण
ना जा तौं भेळू पखाण, जिदेरी घसेरी बोल्यूं माण
आंण नि देन्दी तू सरकारि बोण, गौर भैंस्यूं थें क्या खलांण
गुन्दक्याळी खुट्टी तेरि खस्स रैड़ीली, पट्ट मोरि जेलि भेळ उन्द पोड़ीली
तेरि दाथी चदीरिल, गौर-बछूरूल, सासु ससुरोंल खौळ्यूं रै जाण- जिदेरी घसेरी बोल्यूं माण
आंण नि देन्दी तू सरकारि बोण, गौर भैंस्यूं मिन क्या खलांण
ना जा – ना जा – ना जा हे ना जा,
ना जा – ना जा तौं भेळू पखाण, जिदेरी घसेरी बोल्यूं माण
Anuradha Nirala Singing Jideri Ghasyari
बण भी सरकारी तेरो मन भी सरकारी, तिन क्या सम्झिण हम लोगु कि खारी
बण भी सरकारी तेरो मन भी सरकारी, तिन क्या सम्झिण हम लोगु कि खारी
जब बण जौला लाखुड़ घास लोंला, और गौरू पिजोला तब चुल्लू जगांण, नौनळ निथर भुक्खु सेजांण..
ना जा – ना जा तौं भेळू पखाण, जिदेरी घसेरी बोल्यूं माण
आंण नि देन्दी तू सरकारि बोण, गौर भैंस्यूं मिन क्या खलांण
पाड़ै बेटी-ब्वार्यू कू बण ही च सारु, जणदु छौं मी भी- पर क्याजि कारू?
पाड़ै बेटी-ब्वार्यू कू बण ही च सारु, जणदु छौं मी भी- पर क्याजि कारू?
दया जु आली, साबल सुण्याली त नौकरी जाली मेरी छुट्टी ह्वै जांण, बाल-बच्चों मिन क्या खलाण?
आंण नि देन्दी तू सरकारि बोण, गौर भैंस्यूं मिन क्या खलांण
ना जा – ना जा – ना जा हे ना जा,
ना जा – ना जा तौं भेळू पखाण, जिदेरी घसेरी बोल्यूं माण
गढ़वाल उत्तराखंड लोक संस्कृति
ऊँचे -ऊँचे चीड के पेड़ ,प्राकृतिक स्रोतों से बहता पानी .सीढीनुमा खेत और दूर तक जाती हुई पतली पगडंडियां। हाँ, कुछ ऐसा ही दृश्य हमारी आंखों के आगे छा जाता है जब हम उत्तरांचल का जिक्र करते हैं। उत्तरांचल ,एक ऐसा भूखंड है जो प्राकृतिक सौन्दर्य तथा अपने रीति-रिवाजों के लिए जाना जाता है। यहाँ की सांस्कृतिक धरोहर दूर बसे लोगों को आज भी आकर्षित करती हैं।
गीत-संगीत हो या फिर त्योहारों की रौनक उत्तरांचल की सभी परम्पराएँ बेजोड़ हैं । इनमें से उत्तरांचल की होली, रामलीला , ऐपण ,रंगयाली पिछोड़ा, नथ, घुघूती का त्यौहार आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। यदि खान-पान की बात की जाए तो यहाँ के विशेष फल -काफल, हिशालू , किल्मौडा, पूलम हैं तथा पहाड़ी खीरा, माल्टाऔर नीबू का भी खासा नाम है। जीविका के लिए उत्तरांचल छोड़कर जो लोग शहरों में बस गए हैं, उन्हें यही परम्पराएं अपनी जड़ों से जोड़ने का काम करती हैं साथ ही साथ उत्तरांचल वासी होने का एहसास उनमें सदा जीवंत रहता है।
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